कृष्ण और सुदामा की मित्रता |
वह एक छोटी सी झोपड़ी थी। एक छोटा सा दिया झोपड़ी के एक कोने में अपना प्रकाश दूर-दूर तक फैलाकर रखने की कोशिश कर रहा था। लेकिन एक कोने तक ही उसकी रोशनी सीमित रह गई थी। इस वजह से झोपड़ी का ज्यादातर हिस्सा अंधेरे में डूबा हुआ था। फिर भी उसकी यह कोशिश जारी थी कि वह झोपड़ी को अनदेखा कर दे।
झोपड़ी के कोने में टाट पर दो आंकड़ें बैठी कुछ फुसफुस कर रही थी। वे दोनों अनुमान लगाते हैं कि एक पति-पत्नी थीं।
पत्नी ने कहा– “स्वामी! घर का अन्न जल पूर्ण रूप से समाप्त होता है, केवल यही भुने चने हैं।”
पति का चेहरा चमक उठा– “हे प्रभु ! यह कैसी महिमा है, क्या अच्छाई का यही परिणाम होता है।”
पत्नी सोच में पड़ गई। पति भी सोचनीय अवस्था में पड़ गया।
दोनों काफी देर से सोच रहे हैं। अंत में पत्नी ने कहा– “स्वामी! घर में भी खाने को कुछ नहीं है। निर्जनता ने हमें चारों ओर से घेर लिया है। आपके मित्र कृष्ण अब तो मूरत के राजा बन गए हैं, आप वैसे भी कुछ सहायता मांगो।”
पत्नी की बात सुनकर पति ने पहले तो कुछ झांसा दिया। पर फिर पत्नी के बार-बार कहने पर वह द्वार की ओर प्रस्थान होने पर सहमत हो गई।
सुदामा नामक उस गरीब आदमी के पास धन के नाम पर फूटी कौड़ी भी ना थी, और ना ही पैर में जूतियां।
केवल एक धोती थी, जो पहले शरीर पर और पहले गले में लिपटी थी। धूल और कांटो से मार्ग को पार कर सुदामा द्वारका जाइए।
जब वह कृष्ण के राजभवन के द्वार पर संदेश भेजता है, तो द्वारपाल ने उसे रोक लिया।
सुदामा ने कहा– “मुझे कृष्ण से नाश्ता है।”
पोर्टल क्रुद्र होकर बोला– “दुष्ट महाराज कृष्ण कहो।”
सुदामा ने कहा– “कृष्ण ! मेरा दोस्त है।”
यह देखते ही द्वारपाल ने उसे सिर से पांव तक घुरा और अगले ही क्षणों में हंस दिया।
“तुम हंस क्यों रहे हो” सुदामा ने कहा।
"जाओ कहीं और जाओ, महाराज ऐसे मित्रों से नहीं मिलते" पोर्टल ने कहा और उसकी ओर से ध्यान हटा दिया।
सिक्किम सुदामा अपनी बात पर अड़े रहे।
द्वारपाल परेशान होकर श्री कृष्ण के पास आए और उन्हें आने वाले की व्यथा सुनाई देने लगी।
सुदामा का नाम सुनकर कृष्ण नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े।
द्वार पर बचपन के मित्र को देखते ही वे फूले न समाये। उन्होंने सुदामा को अपनी खास में भर लिया और उन्हें दरबार में ले आए।
उन्होंने सुदामा को अपने राजगद्दी पर बिठाया। उनके पैरों से काटे पैर धोये।
सुदामा मित्रता का यह रूप पहली बार देख रहे थे। खुशी के कारण उनके टीलों का नाम नहीं ले रहे थे।
और फिर कृष्ण ने अपने कपड़े बदलवाये। इसी बीच उनकी धोती में बंधे भुने चनों की पोटली निकल कर पड़ी। कृष्ण चनो की पोटली खोलने के लिए भोजन करें।
द्वारका में सुदामा को बहुत सम्मान मिला, गम्भीर सुदामा फिर भी आशंकाओं में घबराए। क्योंकि कृष्ण ने एक बार भी उनके आने का कारण नहीं पूछा था। कई दिन तक वे वहा रहे।
और फिर चलते समय भी ना तो सुदामा ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई और ना ही कृष्ण ने कुछ पूछा।
वह रास्ते भर दोस्ती के दिखावे की बात मान रहे हैं।
लगता है कि वे अपनी नगरी में प्रवेश कर गए। अंत तक भी उनका क्रोध शांत न हुआ।
ऐसा लगे कि उन्हें हेरानी का तेज झटका लगा। जब उन्हें अपनी झोपड़ी भी अपने स्थान पर न मिली।
झोपड़ी के स्थान पर एक विशाल इमारत बनी हुयी थी। यह देखकर वे परेशान हो जाते हैं। उनकी समझ में नहीं आया, कि यह सब कैसे हो गया। उनकी पत्नी कहीं चली गईं।
लगता-सोचते वे उस इमारत के सामने जा खड़ा हो जाते हैं। द्वारपाल ने उन्हें देखते ही सलाम ठोका और कहा– “आइये मालिक।”
यह नंबर ही सुदामा का दिमाग चकरा गया।
“यह क्या कह रहा है” उन्होंने सोचा।
तभी द्वारपाल पुन: बोला – “क्या सोच रहे हैं, मालिक हम न।”
“यह घर किसका है” सुदामा ने अचकचाकर से पूछा।
“क्या कह रहे हैं मालिक, आप ही का तो है।”
तभी सुदामा की दृष्टि अनायांस ही ऊपर की ओर उठती चली गई। ऊपर देखते ही वह और अधिक हैरान हो जाते हैं। ऊपर उनकी पत्नी एक और से बात कर रही थी।
उन्होंने आवाज़ दी–
अपना नाम लेते हुए ऊपर चढ़ते हुए सुदामा की पत्नी ने नीचे देखा और पति को देखते ही वह प्रसन्न होकर बोली–
“आ जाइए, स्वामी! यह तुम्हारा ही घर है।”
यह सुनकर सुदामा अंदर प्रवेश कर गए।
पत्नी उतरी हुई तो सुदामा ने पूछा- "यह सब क्या है।"
पत्नी ने कहा– “कृष्ण! कृपा है, स्वामी।”
"क्या" सुदामा के मुंह से निकला। अगले ही पल वे सब समझ गए। फिर मन ही मन मुस्कुराएं बोले– “छलिया कहीं का।”
शिक्षा :-
मित्रों! मित्र वही है जो मित्र के काम आये। असली मित्रता वह मित्रता होती है जिसमें बगैर बताये, बिना एहसान जताये, मित्र की सहायता इस रूप में कर दी जाये कि मित्र को भी पता ना चले। जैसा उपकार श्री कृष्ण ने अपने बाल सखा सुदामा के साथ किया।